गिलानी जैसे ये लोग हमारे मुस्लिम भाइयों को इस्लाम के नाम पर कुछ इस तरह बरगलाते हैं । और हमारे शासन के पास कोई शक्ति नहीं जो इस तरह से लोगों को ठिकाने लगा सके। यहाँ पर जो विडिओ मैं दे रहा हूँ। ज़रा गौर कीजियेगा इसपर और अपनी बेबाक राय दीजियेगा एक एक शब्द को सुन कर....
Sunday, October 24, 2010
Thursday, October 21, 2010
किशोरों मैं शराब का बढ़ता प्रचालन : हो हल्ला न मचाएं, समाधान सुझाएँ
किशोर-वयसंधि की आयु के लोग शराब की ओर रुख कर रहे हैं. एक टीवी चैनल और दैनिक समाचार पत्र मैं यह खबर देखने और पढने को मिली. बात कोई नयी नहीं है. हम सब वाकिफ हैं इस तथ्य से. और कहीं न कहीं चिंतित भी होंगे. आखिर हमारे परिवारों मैं से कोई हो सकता है.
तो क्या समाज जाने अनजाने छूट दे रहा है? क्या हम अपनी अगली पीढी के भविष्य के प्रति सजग नहीं हैं? क्या शिक्षा और समय के अनुरूप कुछ ज्यादा ही आज़ादी दी जा रही है बढते बच्चों को ? क्या हो रहा है परिवारों मैं जो बहुत खतरनाक है? आखिर इस व्यवहारिक परिवर्तन का ज़िम्मेदार कौन है ?
मुझे लगता है कि परिवारों मैं एकांत वास और दूरियां बनाने का जो रिवाज़ चल पड़ा है हमारे समाज मैं, यह बदलाव कमोबेश उसी का नतीजा है. ऐसा क्यूँ होता है कि आजकल हर किसी को अपने लिए अलग आकाश की ज़रूरत पद रही है ? चाहे उसे उसकी आवश्यकता हो या न हो? कहीं न कहीं ये अलग थलग रहना, खुद मैं उलझे रहना और तनाव ही ऐसे मनोविकारों के कारण बन रहे हैं?
परिवार के एक इकाई के रूप मैं टूटने और सामाजिक दायित्व वाली सोच का घटना भी कहीं न कहीं इसका मूल कारण है. आये जागें और सम्हालें उन पौधों को जिन पर भविष्य के विकास के फल लगने हैं. हम सभी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर ऐसे बच्चों को सहारा दें उन्हें सही दिशा दिखाएँ. हो हल्ला कर देना ही काफी नहीं होता. कंधों पर ज़िम्मेदारी का भोझ रखना भी हमको सीखना है और ऐसी समस्याओं से निपटना है.
तो क्या समाज जाने अनजाने छूट दे रहा है? क्या हम अपनी अगली पीढी के भविष्य के प्रति सजग नहीं हैं? क्या शिक्षा और समय के अनुरूप कुछ ज्यादा ही आज़ादी दी जा रही है बढते बच्चों को ? क्या हो रहा है परिवारों मैं जो बहुत खतरनाक है? आखिर इस व्यवहारिक परिवर्तन का ज़िम्मेदार कौन है ?
मुझे लगता है कि परिवारों मैं एकांत वास और दूरियां बनाने का जो रिवाज़ चल पड़ा है हमारे समाज मैं, यह बदलाव कमोबेश उसी का नतीजा है. ऐसा क्यूँ होता है कि आजकल हर किसी को अपने लिए अलग आकाश की ज़रूरत पद रही है ? चाहे उसे उसकी आवश्यकता हो या न हो? कहीं न कहीं ये अलग थलग रहना, खुद मैं उलझे रहना और तनाव ही ऐसे मनोविकारों के कारण बन रहे हैं?
परिवार के एक इकाई के रूप मैं टूटने और सामाजिक दायित्व वाली सोच का घटना भी कहीं न कहीं इसका मूल कारण है. आये जागें और सम्हालें उन पौधों को जिन पर भविष्य के विकास के फल लगने हैं. हम सभी अपनी ज़िम्मेदारी समझ कर ऐसे बच्चों को सहारा दें उन्हें सही दिशा दिखाएँ. हो हल्ला कर देना ही काफी नहीं होता. कंधों पर ज़िम्मेदारी का भोझ रखना भी हमको सीखना है और ऐसी समस्याओं से निपटना है.
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Saturday, October 16, 2010
बदलता भारत : उदारवादी राष्ट्र से पूंजीवादी राष्ट्र की ओर
भारतवर्ष की तस्वीर हमारे संविधान बनाने वालों ने उदारवादी लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप मैं उकेरी। कुछ दशकों तक तो हम अपने देश को इसी राह पर लेकर आगे बढे। परन्तु अगर हम पिछले दो दशकों पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि अब हमारा रुझान अमेरिका की पूंजीवादी आर्थिक नीतियों से प्रभावित हो रहा है।
दो दशक पूर्व तक की सरकारें देश के विशाल माध्यम वर्ग को आधार मान कर उसकी सामाजिक और आर्थिक उन्नति को केंद्र मानते हुए नीति निर्धारण करती रही हैं। पर इतर कुछ ऐसा हनी लगा कि वो विशाल मध्य वर्ग असुरक्षित होता जा रहा है।
इस परिवर्तन का सबसे चौंका देने वाला प्रभाव यह पड़ा कि धन के तो अम्बार लग गए पर वो धन कुछ ख़ास ही लोगों की तिजोरियों की शोभा बढाने के काम आने लगा।
यकायक सरकारी नौकरियां घटने लगीं। जो लोग सरकारी नौकरियों की बदौलत पीढ़ी दर पीढ़ी अपना जीवन यापन करते आ रहे थे उनके पैरों तले धरती खिसकने लगी। ऐसा क्यों हो रहा है ? यह एक बहुत गंभीर सवाल है। जो सरकारी पद समाप्त कीये जा रहे हैं क्या उनसे सम्बद्ध कार्य अब नहीं रहा ? नहीं ऐसा कतई नहीं है। काम है।
तो फिर सरकारी नौकरियों के लिए रिक्तियों की संख्या घटी क्यूँ जा रही है? क्या आबादी कम हो रही है? जो कि काम करने वाले भी कम ही चाहियें? नहीं, ऐसा भी नहीं है? या फिर सरकारी खजाने मैं वेतन देने के लिए धन का ही टोटा है ? नहीं, ऐसा भी नहीं है? फिर कारण क्या है? कुछ प्रबुद्ध लोग तर्क देते हैं कि ठेके दारी के अंतर्गत काम करवाना अधिक लाभकारी है। इस लिए पक्की नौकरी न देकर ठेकेदार के द्वारा कार्य को संपन्न करवाना चाहिए।
ठेका लेने वाले लोग केवल अपने लाभांश को मछली आँख मानकर बस उसी का ध्यान लखते हैं। उनको कार्य की गुणवत्ता से कोई लेने-देना नहीं होता। ऐसे बहुतेरे उदहारण हम आये दिन दिल्ली महानगर मैं गिरते पुलों, टूटी सड़कों के रूप मैं देखते ही रहते हैं। क्यूंकि ठेकेदार ठेका लेने के लिए कितनी भी घूस दे सकता है और जितनी ज्यादा घूसरशी होगी वो गुणवत्ता उतनी ही कम करके काम को जैसे तैसे पूरा करेगा। और ठेकेदारों से काम इसलिए भी करवाते हैं कि काम कम समय मैं हो जाता है क्यूंकि सरकारी कर्मचारी काम करने के मामले मैं उतने चुस्त-दुरुस्त नहीं होते जितनी कि प्राइवेट कामगार। कुछ हद तक मैं इस कथन से सहमत हूँ। पर क्या इसका समाधान नहीं खोजा जाना चाहिए था?
आज जब हमारा प्यारा भारत देश एक विश्व महाशक्ति बनने की दिशा मैं अग्रसर है, हमे अपने देशवासियों के लिए उत्तम स्वाथ्य सुविधाएँ , विश्व स्तरीय परिवहन सुविधाएँ , बैंकिंग व्यवस्थाएं, रेल तंत्र, सुरक्षा और उद्योग, सूची तो बहुत लम्बी होगी, विकसति करनी हैं। क्या वह पूरा काम हम मध्य वर्ग के भविष्य को सुरक्षित किये बिना हम इन ठेकेदारों के थोथे भरोसे के बल पर कर पायेंगे?
सारकारी तंत्र को जागना होगा। निजी राजनैतिक स्वार्थों के खेल को दरकिनार करके इस दिशा मैं ठोस कदम उठाना ही होगा। नहीं तो फिर से हमारा देश पुराने सूदखोर महाजन जैसे आधुनिक महाजनों के मायाजाल मैं फंस जाने वाला है ।
यदि कोई सजग प्रयास नहीं किया गया तो .... फिर ... क्रान्ति होगी ... जैसे रूस मैं हुई थी .... अक्टूबर क्रान्ति ॥ खुनी क्रान्ति होगी ... और गरीब अपनी गरीबी को खून से धोने से भी नहीं हिचकेगा।
दो दशक पूर्व तक की सरकारें देश के विशाल माध्यम वर्ग को आधार मान कर उसकी सामाजिक और आर्थिक उन्नति को केंद्र मानते हुए नीति निर्धारण करती रही हैं। पर इतर कुछ ऐसा हनी लगा कि वो विशाल मध्य वर्ग असुरक्षित होता जा रहा है।
इस परिवर्तन का सबसे चौंका देने वाला प्रभाव यह पड़ा कि धन के तो अम्बार लग गए पर वो धन कुछ ख़ास ही लोगों की तिजोरियों की शोभा बढाने के काम आने लगा।
यकायक सरकारी नौकरियां घटने लगीं। जो लोग सरकारी नौकरियों की बदौलत पीढ़ी दर पीढ़ी अपना जीवन यापन करते आ रहे थे उनके पैरों तले धरती खिसकने लगी। ऐसा क्यों हो रहा है ? यह एक बहुत गंभीर सवाल है। जो सरकारी पद समाप्त कीये जा रहे हैं क्या उनसे सम्बद्ध कार्य अब नहीं रहा ? नहीं ऐसा कतई नहीं है। काम है।
तो फिर सरकारी नौकरियों के लिए रिक्तियों की संख्या घटी क्यूँ जा रही है? क्या आबादी कम हो रही है? जो कि काम करने वाले भी कम ही चाहियें? नहीं, ऐसा भी नहीं है? या फिर सरकारी खजाने मैं वेतन देने के लिए धन का ही टोटा है ? नहीं, ऐसा भी नहीं है? फिर कारण क्या है? कुछ प्रबुद्ध लोग तर्क देते हैं कि ठेके दारी के अंतर्गत काम करवाना अधिक लाभकारी है। इस लिए पक्की नौकरी न देकर ठेकेदार के द्वारा कार्य को संपन्न करवाना चाहिए।
ठेका लेने वाले लोग केवल अपने लाभांश को मछली आँख मानकर बस उसी का ध्यान लखते हैं। उनको कार्य की गुणवत्ता से कोई लेने-देना नहीं होता। ऐसे बहुतेरे उदहारण हम आये दिन दिल्ली महानगर मैं गिरते पुलों, टूटी सड़कों के रूप मैं देखते ही रहते हैं। क्यूंकि ठेकेदार ठेका लेने के लिए कितनी भी घूस दे सकता है और जितनी ज्यादा घूसरशी होगी वो गुणवत्ता उतनी ही कम करके काम को जैसे तैसे पूरा करेगा। और ठेकेदारों से काम इसलिए भी करवाते हैं कि काम कम समय मैं हो जाता है क्यूंकि सरकारी कर्मचारी काम करने के मामले मैं उतने चुस्त-दुरुस्त नहीं होते जितनी कि प्राइवेट कामगार। कुछ हद तक मैं इस कथन से सहमत हूँ। पर क्या इसका समाधान नहीं खोजा जाना चाहिए था?
आज जब हमारा प्यारा भारत देश एक विश्व महाशक्ति बनने की दिशा मैं अग्रसर है, हमे अपने देशवासियों के लिए उत्तम स्वाथ्य सुविधाएँ , विश्व स्तरीय परिवहन सुविधाएँ , बैंकिंग व्यवस्थाएं, रेल तंत्र, सुरक्षा और उद्योग, सूची तो बहुत लम्बी होगी, विकसति करनी हैं। क्या वह पूरा काम हम मध्य वर्ग के भविष्य को सुरक्षित किये बिना हम इन ठेकेदारों के थोथे भरोसे के बल पर कर पायेंगे?
सारकारी तंत्र को जागना होगा। निजी राजनैतिक स्वार्थों के खेल को दरकिनार करके इस दिशा मैं ठोस कदम उठाना ही होगा। नहीं तो फिर से हमारा देश पुराने सूदखोर महाजन जैसे आधुनिक महाजनों के मायाजाल मैं फंस जाने वाला है ।
यदि कोई सजग प्रयास नहीं किया गया तो .... फिर ... क्रान्ति होगी ... जैसे रूस मैं हुई थी .... अक्टूबर क्रान्ति ॥ खुनी क्रान्ति होगी ... और गरीब अपनी गरीबी को खून से धोने से भी नहीं हिचकेगा।
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Thursday, October 14, 2010
दिखाने के खेलों का शुभ समापन, और घोटाले छिपाने का खेल शुरू...
खेलों का शुभ समापन हो गया. भारत की साख बच गयी है. सब लोग खुश हैं. सोने के तमगों की गिनती भी बढ़ गयी है. आयोजन से जुडे सब लोग राहत की सांस ले रहे हैं. अच्छी बात है, पर इससे भी अच्छी बात तब होगी जब इनसब लोगों के काले कारनामे भी उजागर होंगे. और दोषी लोगों को दण्डित करने की कार्रवाही ईमानदारी से होगी. जिसकी आशा मुझे और इस देश कि जनता को कतई नहीं है.
सफल आयोजन की ख़ुशी के तले कहीं उन सबके काले कारनामे भी हमेश की तरह दब कर ना रह जाएँ. हमें और सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए. नहीं तो भ्रष्टाचार के माहिर लोगों को बल मिलेगा और माहौल बद से बदतर होता जायेगा.
मेरी भारत के देशवासियों से अपील है कि इस मामले को इस तरह से दबाया न जाने दें. यही इस समय राष्ट्र की सबसे बड़ी मांग है. जय हिंद. जय भारत.
सफल आयोजन की ख़ुशी के तले कहीं उन सबके काले कारनामे भी हमेश की तरह दब कर ना रह जाएँ. हमें और सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए. नहीं तो भ्रष्टाचार के माहिर लोगों को बल मिलेगा और माहौल बद से बदतर होता जायेगा.
मेरी भारत के देशवासियों से अपील है कि इस मामले को इस तरह से दबाया न जाने दें. यही इस समय राष्ट्र की सबसे बड़ी मांग है. जय हिंद. जय भारत.
Thursday, October 7, 2010
मंदिर-मस्जिद की विवादित भूमि क्या सर्वश्रेष्ठ उपयोग-
मेरे विचार से तो उस पूरी ज़मीन पर एक सर्वसुविधा संपन्न अस्पताल बनाना चाहिए जिसका लाभ हिन्दू, मुसमान, सिख, इसाई, पारसी, सिन्धी, अगड़े, पिछड़े, ऊंचे, नीचे, अमीर, गरीब, अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, गरीबी रेखा के ऊपर वाले, गरीबी रेखा के नीचे वाले, कार वाले, बेकार, मजदूर, किसान, रेहड़ी मजदूर, व्यापारी, नौकरी पेशा, सरकारी अफसर, बाबू, चपरासी, पान वाला, फल वाला, प्रेस वाला, मीडिया कर्मी, दिल्ली वाला, दिल वाला, या जिन का निकल गया हो दिवाला,किन्नर, बे-दिल और वो लोग जो शायद किसी गिनती मैं नहीं आते हों, उन सभी को मिलना चाहिए जो इस भारतवर्ष के अभिन्न अंग हैं. क्यूंकि मुझे लगता है कि इस व्यवस्था पर किसी को कोई एतराज़ नहीं होगा. और हो भी..... तो होता रहे. हमें इस नासूर का इलाज करना है. इस देश कि भावी पीढ़ी को मजबूत आधार देना है. किसी के राजनैतिक जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए हम सब कबतक किस किस की बलि चढाते रहेंगे??? सोचो भारत के बेटो.
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